कविता संग्रह >> दीप देहरी द्वार दीप देहरी द्वारलक्ष्मीकान्त वर्मा
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वर्मा जी की 100 कवितायें
पूर्वा
इस लम्बी यातना भरी बीमारी में
मैंने बहुत चाहा, कोई और हो मेरे साथ
और जब मैं नितान्त अकेला रहूँ
तो मुझसे बात करे,
पर कोई नहीं रहा जो मेरे एकान्त में
रुग्ण-शैया के पास बैठे, मुझ से कुछ बात करे।
अकेले तुम्ही थे मेरे साथ निरन्तर, हर क्षण, मौन, शुभ्र।
यह अप्रस्तुत उपस्थिति तुम्हारी
मुझे बार बार एकान्त-वार्ता के लिए विवश करती रही,
मुझे लगा तुम मेरी हर जिज्ञासा को शान्त करोगे।
पर तुम तो बोले ही नहीं,
केवल सुनते रहे,
कहाँ मिलता है ऐसा श्रोताजो
केवल सुने। बोले नहीं?
कहाँ मिलता है ऐसा उपनिषद
जहाँ जिज्ञासा ही बन जाय उत्तर?
कहाँ मिलता है ऐसा वक्ता
जो अनुपस्थित होकर भी रहे उपस्थित,?
कहाँ मिलता है ऐसा उपचारक
जो रोग को ही बना दे निदान?
कहाँ मिलता ऐसा रक्षक
जो अभाव को ही बना दे कवच?
ऐसे क्षणों में, मैं ने जो कुछ कहा,
और जो कुछ तुमने मुझ से कहा,
उस अमूर्त भाषा, वाणी, मुद्रा में
जो कुछ भी पका, सीझा
उसे ही मैंने कहा “मिट्टी की साध"
तुमने कहा “दीप देहरी द्वार”।
तो लो मेरे नितान्त एकान्त
यह मेरी मिट्टी की साध का
अकिंचन “दीप-देहरी-द्वार"।.
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